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थाईलैंड का प्राचीन शहर "अयुत्या" जो भगवान राम की जन्मस्थली "अयोध्या" पर रखा गया है: जाने खास बातें


Ayutthaya Thailand: 
1350 में स्थापित अयुत्या का ऐतिहासिक शहर है जोसुखोथाई के बाद सियामी साम्राज्य की दूसरी राजधानी थी। यह 14वीं से 18वीं शताब्दी तक फला-फूला,इस दौरान यह दुनिया के सबसे बड़े और सबसे महानगरीय शहरी क्षेत्रों में से एक बन गया जो वैश्विक कूटनीति और वाणिज्य का केंद्र था। अयुत्या रणनीतिक रूप से शहर को समुद्र से जोड़ने वाली तीन नदियों से घिरे एक द्वीप पर स्थित था। इस स्थान को इसलिए चुना गया क्योंकि यह सियाम की खाड़ी के ज्वारीय क्षेत्र के ऊपर स्थित था,  इससे अन्य देशों के समुद्री युद्धपोतों द्वारा शहर पर हमले को रोका जा सकता था। इस स्थान ने शहर को मौसमी बाढ़ से बचाने में भी मदद की।

बिहार के राज्यपाल श्री राजेंद्र विश्वनाथ अर्लेकर ने आज थाईलैंड के प्राचीन शहर अयुत्या का दौरा किया, जिसका नाम भारत में भगवान राम की जन्मस्थली अयोध्या के नाम पर रखा गया है। राज्यपाल 22 सदस्यीय भारतीय प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व कर रहे हैं जो थाईलैंड में 26 दिवसीय प्रदर्शनी के लिए भगवान बुद्ध के पवित्र अवशेष ले गया है।

Ayutthaya Thailand Named After Lord Ram in Ayodhya Facts in Brief
1767 में बर्मी सेना ने शहर पर हमला किया और उसे तहस-नहस कर दिया। बर्मी सेना ने शहर को जला दिया और निवासियों को शहर छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया। शहर का पुनर्निर्माण उसी स्थान पर कभी नहीं किया गया और यह आज भी एक व्यापक पुरातात्विक स्थल के रूप में जाना जाता है।


कभी वैश्विक कूटनीति और वाणिज्य का महत्वपूर्ण केंद्र रहा अयुत्या अब पुरातात्विक महत्व का केन्द्र है, जिसकी विशेषता ऊंचे प्रांग (अवशेष टावर) और विशाल अनुपात के बौद्ध मठों के अवशेष हैं, जो शहर के अतीत के आकार और इसकी वास्तुकलाभव्यता का अंदाजा देते हैं।

अयुत्या की अपनी यात्रा पर राज्यपाल श्री अर्लेकर ने कहा कि यह शहर भारतीय और थाई सभ्यता के बीच गहरे सांस्कृतिक और ऐतिहासिक संबंध को दर्शाता है जिसे थाईलैंड के लोगों और सरकार ने संरक्षित कर रखा है। उन्होंने यह भी उल्लेख किया कि बिहार राज्य का राज्यपाल होने के नाते, जो कई बौद्ध विरासतों और बोधगया का स्थान है,

ऐतिहासिक शहर अयुत्या का दौरा करने का अवसर मिलना उनके लिएएक सम्मान है, वह भी खासकर ऐसे समय में जब भारत के अयोध्या शहर में राम मंदिर का उद्घाटन किया गया। उन्होंने कहा कि ये प्राचीन मंदिर, महल और खंडहर न केवल थाईलैंड के समृद्ध इतिहास और संस्कृति की गहरी समझ देते हैं बल्कि हमें आधुनिक थाईलैंड की सांस्कृतिक जड़ों और विरासत की गहराई को समझने में भी मदद करते हैं।

राज्यपाल ने यह भी कहा कि यह सुनिश्चित करने के लिए उपाय किए जाने चाहिए कि भारत में लोग इस सांस्कृतिक जुड़ाव और दुनिया भर में भारतीय संस्कृति के प्रसार के बारे में जागरूक हों।

भारत की समृद्ध विरासत का संरक्षण: अयोध्या में राम मंदिर, सोमनाथ, काशी विश्वनाथ,चारधाम और अन्य

Indian Heritage Somnath Mahakal Kedarnath Ram Temple Kartar Sahib

भारत अपने समृद्ध इतिहास और सांस्कृतिक विविधता से परिपूर्ण देश है। देश में अनेक अत्यधिक महत्वपूर्ण प्राचीन स्थल और विरासत स्मारक मौजूद हैं। भारत सरकार ने देश की कालातीत और समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण के महत्व को स्वीकार किया है। प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सरकार ने 'विकास भी विरासत भी' के नारे के तहत यह प्रयास किया है। प्रधानमंत्री ने राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारतीय ज्ञान प्रणालियों, परंपराओं और सांस्कृतिक लोकाचार को संरक्षित करने और बढ़ावा देने के कार्य को अत्यधिक महत्व दिया है।

सभ्यतागत महत्व के उपेक्षित स्थलों का पुनर्विकास करना सरकार की महत्वपूर्ण उपलब्धियों में से एक है। मई 2023 तक, सरकार द्वारा भारत की प्राचीन सभ्यता की विरासत को संरक्षित करने के लिए अपनी अटूट प्रतिबद्धता दर्शाते हुए देश भर में तीर्थ स्थलों को कवर करने वाली 1584.42 करोड़ रुपये की लागत वाली कुल 45 परियोजनाओं को प्रसाद (पीआरएएसएडी) यानी (तीर्थयात्रा कायाकल्प और आध्यात्मिक संवर्धन अभियान) योजना के तहत अनुमोदित किया गया है।

काशी विश्वनाथ कॉरिडोर 

कई दशकों की उपेक्षा के बाद, भारत के लंबे सभ्यतागत इतिहास वाले विभिन्न स्थलों को संरक्षण, पुनरुद्धार और विकास परियोजनाओं के माध्यम से पुनर्जीवित किया गया है। काशी विश्वनाथ कॉरिडोर और वाराणसी में कई अन्य परियोजनाओं ने शहर की गलियों, घाटों और मंदिर परिसरों को बदल दिया है। 

महाकाल परियोजना

इसी तरह, उज्जैन में महाकाल लोक परियोजना और गुवाहाटी में मां कामाख्या कॉरिडोर जैसी परियोजनाओं से मंदिर आने वाले तीर्थयात्रियों के अनुभव को समृद्ध करने, उन्हें विश्व स्तरीय सुविधाएं प्रदान करने के साथ-साथ पर्यटन और स्थानीय अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलने की उम्मीद है।

अयोध्या में राम मंदिर

एक ऐतिहासिक क्षण में, अगस्त 2020 में अयोध्या में राम मंदिर के लिए भूमिपूजन हुआ और एक भव्य मंदिर का निर्माण जोरों पर है।

चारधाम सड़क परियोजना

एक अन्य उल्लेखनीय प्रयास के तहत 825 किमी लंबी चारधाम सड़क परियोजना है, जो चार पवित्र धामों को निर्बाध बारहमासी सड़क संपर्क प्रदान करती है। प्रधानमंत्री ने इससे पहले 2017 में केदारनाथ में पुनर्निर्माण और विकास परियोजनाओं की आधारशिला रखी थी, जिसमें श्री आदि शंकराचार्य की समाधि भी शामिल थी, जो 2013 की विनाशकारी बाढ़ में तबाह हो गई थी। नवंबर 2021 में, प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने केदारनाथ में श्री आदि शंकराचार्य की समाधि पर उनकी मूर्ति का अनावरण किया था। इसके अतिरिक्त, गौरीकुंड को केदारनाथ और गोविंदघाट को हेमकुंड साहिब से जोड़ने वाली दो रोपवे परियोजनाएं पहुंच को और बढ़ाने और भक्तों की आध्यात्मिक यात्रा को सुविधाजनक बनाने के लिए तैयार हैं।

सोमनाथ में कई परियोजनाओं का उद्घाटन

सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने के लिए सरकार के समर्पण के एक और उदाहरण में, प्रधानमंत्री ने गुजरात के सोमनाथ में कई परियोजनाओं का उद्घाटन और शिलान्यास किया, जिसमें सोमनाथ प्रोमेनेड, सोमनाथ प्रदर्शनी केंद्र और पुराने (जूना) सोमनाथ के पुनर्निर्मित मंदिर परिसर शामिल हैं। 

करतारपुर कॉरिडोर 

इसी तरह, करतारपुर कॉरिडोर और एकीकृत चेक पोस्ट का उद्घाटन एक महत्वपूर्ण अवसर था, जिससे श्रद्धालुओं के लिए पाकिस्तान में पवित्र गुरुद्वारा करतारपुर साहिब में मत्था टेकना आसान हो गया।

बौद्ध सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण: बौद्ध सर्किट

हिमालयी और बौद्ध सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण करना भी सरकार के प्रयासों में विशेष रूप से शामिल है। स्वदेश दर्शन योजना के हिस्से के रूप में, सरकार ने भारत की विविध सांस्कृतिक विरासत को दर्शाने वाले विषयगत सर्किट विकसित करने के उद्देश्य से 76 परियोजनाएं शुरू की हैं। बौद्ध सर्किट के लिए विश्वस्तरीय इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास पर ध्यान केंद्रित किया गया है, जिससे भक्तों के लिए बेहतर आध्यात्मिक अनुभव सुनिश्चित हुआ है। 2021 में, कुशीनगर अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे का उद्घाटन किया गया, जिससे महापरिनिर्वाण मंदिर तक आसानी से पहुंचा जा सके। पर्यटन मंत्रालय उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, गुजरात और आंध्र प्रदेश सहित विभिन्न राज्यों में बौद्ध सर्किट के तहत सक्रिय रूप से स्थलों का विकास कर रहा है। 

इसके अलावा, श्री नरेंद्र मोदी ने मई 2022 में नेपाल के लुंबिनी में तकनीकी रूप से उन्नत भारत अंतरराष्ट्रीय बौद्ध संस्कृति और विरासत केंद्र की आधारशिला रखी थी, जो बौद्ध विरासत और भारत की सांस्कृतिक विविधता के संरक्षण और संवर्धन के लिए सरकार की प्रतिबद्धता को उजागर करता है।

पुरावशेषों  की वापसी 

पुरावशेषों की वापसी के माध्यम से भारत की सांस्कृतिक विरासत को भी महत्वपूर्ण बढ़ावा मिला। 24 अप्रैल, 2023 तक, भारतीय मूल के 251 अमूल्य पुरावशेषों को विभिन्न देशों से वापस प्राप्त किया गया है, जिनमें से 238 को 2014 के बाद से वापस लाया गया है। भारत के अमूल्य पुरावशेषों की वापसी देश के सांस्कृतिक खजाने की सुरक्षा और पुनः प्राप्ति के लिए सरकार की प्रतिबद्धता का एक सशक्त प्रमाण है।

हृदय (हेरिटेज सिटी डेवलपमेंट एंड ऑग्मेंटेशन योजना) योजना

हृदय (हेरिटेज सिटी डेवलपमेंट एंड ऑग्मेंटेशन योजना) योजना के तहत 12 विरासत शहरों का विकास एक असाधारण विरासत के संरक्षक के रूप में खुद को स्थापित करने की सरकार की प्रतिबद्धता को दर्शाता है। भारत प्रभावशाली 40 विश्व विरासत स्थलों का दावा करता है, जिनमें से 32 सांस्कृतिक हैं, 7 प्राकृतिक हैं, और 1 मिश्रित श्रेणी के अंतर्गत है, जो भारत की विरासत की विविधता और समृद्धि को प्रदर्शित करता है। पिछले नौ वर्षों में ही विश्व विरासत स्थलों की सूची में 10 नए स्थलों को जोड़ा गया है। इसके अतिरिक्त, भारत की अस्थायी सूची 2014 में शामिल 15 साइटों से बढ़कर 2022 में 52 हो गई है, जो भारत की सांस्कृतिक विरासत की वैश्विक मान्यता और बड़ी संख्या में विदेशी यात्रियों को आकर्षित करने की क्षमता का संकेत है।

'काशी तमिल संगमम'

भारत की सांस्कृतिक समृद्धि को महीने भर चलने वाले 'काशी तमिल संगमम' के माध्यम से भी प्रदर्शित किया गया - जो कि उत्तर प्रदेश के वाराणसी में आयोजित किया गया था, जिसका उद्देश्य तमिलनाडु और काशी के बीच सदियों पुराने संबंधों का जश्न मनाना, देश के शिक्षण के 2 सबसे महत्वपूर्ण स्थानों फिर से पुष्टि करना और उन्हें खोजना है। ऐसे कार्यक्रमों के माध्यम से, सरकार एक भारत श्रेष्ठ भारत के विचार को सशक्त रूप से बढ़ावा देती है, जिसका उद्देश्य देश की संस्कृति का जश्न मनाना है। हाल ही में, देश भर के सभी राज्यों के सभी राजभवनों द्वारा राज्य दिवस मनाने का निर्णय भी एक भारत श्रेष्ठ भारत की भावना को उजागर करता है।

इन सभी महत्वाकांक्षी परियोजनाओं और पहलों के माध्यम से, प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी के दृष्टिकोण से निर्देशित भारत सरकार ने देश की सांस्कृतिक विरासत को बढ़ावा देने और संरक्षित करने के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं। वे देश की समृद्ध संस्कृति के प्रति गहरी जागरूकता और इसकी विरासत को संरक्षित करने की दृढ़ प्रतिबद्धता को दर्शाते हैं। सरकार का उद्देश्य भारत के सांस्कृतिक और आध्यात्मिक खजाने की रक्षा और प्रचार करके, भारतीय इतिहास और संस्कृति की वर्तमान और भावी पीढ़ियों की समझ को समृद्ध करना है। अंतरराष्ट्रीय पर्यटकों की बढ़ती संख्या को आकर्षित करने की क्षमता और विरासत स्थलों को पुनर्जीवित करने के चल रहे प्रयासों के साथ, भारत की प्राचीन सभ्यता और सांस्कृतिक परंपराएं वैश्विक मंच पर चमकती रहेंगी।

(लेखक: नानू भसीन, अपर महानिदेशक; ऋतु कटारिया, सहायक निदेशक, पत्र सूचना कार्यालय; और अपूर्वा महिवाल, यंग प्रोफेशनल, अनुसंधान इकाई, PIB)

(Source: PIB)

भारतीय संसद जाने खास बाते : Facts in Brief

Indian Parliament facts in brief

भारतीय लोकतांत्रिक प्रणाली की शक्ति हमारी संसद में प्रकट होती है, जिसने औपनिवेशिक शासन से भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को झेला और कई ऐतिहासिक पड़ाव देखे हैं। मौजूदा भवन ने स्वतंत्र भारत की पहली संसद के रूप में कार्य किया है और भारत के संविधान को अपनाया है। 

इस प्रकार, संसद भवन की समृद्ध विरासत का संरक्षण और नवीकरण किया जाना राष्ट्रीय महत्व का विषय है। भारत की लोकतांत्रिक भावना का प्रतीक, संसद भवन सेंट्रल विस्टा के केंद्र में अवस्थित है। 

ब्रिटिश वास्तुकार सर एडविन लुटियंस और हर्बर्ट बेकर द्वारा डिजाइन की गई भारत का वर्तमान संसद भवन एक औपनिवेशिक युग की इमारत है, जिसके निर्माण में छह वर्ष (1921-1927) लगे। 

मूल रूप से “हाउस ऑफ़ पार्लियामेंट” कहे जाने वाले इस इमारत में ब्रिटिश सरकार की विधान परिषद कार्यरत थी। अधिक स्थान की मांग को पूरा करने के लिए वर्ष 1956 में संसद भवन में दो और मंजिलें जोड़ी गईं। 

भारत की समृद्ध लोकतांत्रिक विरासत के 2,500 वर्षों को प्रदर्शित करने के लिए संसद संग्रहालय को वर्ष 2006 में जोड़ा गया। आधुनिक संसद के उद्देश्य के अनुरूप इस इमारत को बड़े पैमाने पर संशोधित किया जाना था।

(सोर्स मिनिस्ट्री ऑफ़ हाउसिंग एंड अर्बन अफेयर्स, भारत सरकार Official Website)

13 अप्रैल जलियांवाला बाग नरसंहार- स्वतंत्रता संग्राम में एक महत्वपूर्ण मोड़, जानें सम्पूर्ण तथ्य

Facts in Brief: Dekho Apna Desh: Jallianwala Bagh- A turning point in the Freedom struggle, Things You Need to Know
जलियांवाला बाग, पंजाब के अमृतसर में नाम की एक जगह है जो कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है जलियांवाला बाग उस समय एक बंजर भूमि थी जहां पर लोग प्रायः मिलते रहते थे और शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन के लिए उसका उपयोग करते रहते थे। अंग्रेजी शासन के कुशासन और निर्दयता वाली अनेक निर्णयों का एक महत्वपूर्ण गवाह है जलियाँवाला बाग जहाँ 13 अप्रैल 1919 को निहत्थे, शान्त रूप से हम भीड़ जिसमें बुजुर्ग, महिलायें और बच्चें शामिल थे उनपर ब्रिगेडियर जनरल डायर ने फायरिंग करने का हुक्म जारी किया और सैकड़ों लोगों को मार डाला था. 

पर्यटन मंत्रालय ने स्वतंत्रता दिवस समारोह के अवसर पर देखो अपना देश वेबिनार श्रृंखला के अंतर्गत स्वतंत्रता दिवस की थीम पर आधारित चौथा वेबिनार “जलियांवाला बाग: स्वतंत्रता संग्राम में एक महत्वपूर्ण मोड़” का आयोजन किया गया।

इस श्रृंखला के अंतर्गत यह 48 वां वेबिनार है। देखो अपना देश वेबिनार श्रृंखला का 48वां वेबिनार, सुश्री किश्वर देसाई, अध्यक्ष, द पार्टिशन म्यूजियम/ आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज और जलियांवाला बाग, 1919 द रियल स्टोरी किताब की लेखिका द्वारा प्रस्तुत किया गया। सुश्री देसाई द्वारा उस भयावह कृत्यों के बारे में बताया गया जिसके कारण सैकड़ों बेगुनाहों की हत्या की गई और कैसे इस सामूहिक नरसंहार ने बाद के दिनों में पूरे देश को ब्रिटिश राज के खिलाफ लड़ने के लिए एकजुट किया। देखो अपना देश वेबिनार श्रृंखला, एक भारत श्रेष्ठ भारत के अंतर्गत भारत की समृद्ध विविधता को प्रदर्शित करने का एक प्रयास है।

जालियाँवाला बाग: Facts in Brief 

  1. जालियाँवाला बाग -पंजाब में स्थित 
  2. 1919 में, ब्रिटिश हुकूमत ने 'रोलैट' एक्ट पास किया था 
  3. 10 अप्रैल, 1919 को दो लोकप्रिय नेताओं डॉ. सत्यपाल और डॉ. किचलू को गिरफ्तार किया गया था।
  4. 1650 राउंड फायर हुए थे जिसका आदेश जनरल डायर ने दिए थे.
  5. इसके विरोध में व्यापक प्रतिक्रिया हुई और रवींद्र नाथ टैगोर ने अपनी नाईटहुड की उपाधि वापस कर दी थी। 
  6. महात्मा गांधी ने कैसर-ए-हिंद की उपाधि वापस कर दी थी। 

इस अवधि के दौरान, जमीनी स्तर की पृष्ठभूमि और परिस्थितियों को आधार बनाते हुए, सुश्री देसाई ने बताया कि कैसे प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारतीय सैनिक, विदेशी धरती के साथ-साथ बंगाल और पंजाब में अंग्रेजों की ओर से लड़ रहे थे और पंजाब औपनिवेशिक विरोधी गतिविधियों का अब तक स्रोत बना हुआ था। बंगाल में हो रहे क्रांतिकारी हमले, जो कि पंजाब में हो रही गड़बड़ियों के साथ मजबूती के साथ जुड़े हुए थे, क्षेत्रीय प्रशासन को लगभग पंगु बनाने के लिए बहुत महत्वपूर्ण थे। 1918 और 1920 के बीच, भारत में इन्फ्लूएंजा महामारी के कारण लाखों लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी। बहुत से सैनिकों को अलोकतांत्रिक रूप से भर्ती किया गया और उनमें से कुछ ने जबरन भर्ती के खिलाफ अपनी नाराजगी जाहिर करनी शुरू कर दी। 1914 में प्रथम विश्व युद्ध के शुरू होने के बाद, गदर पार्टी के कुछ सदस्य भारतीय स्वतंत्रता के लिए सशस्त्र क्रांति को चिंगारी देने के लिए पंजाब लौट आए। गदर के सदस्यों ने भारत में हथियारों की तस्करी की और भारतीय सैनिकों को अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह के लिए उकसाया।

सुश्री देसाई ने जलियांवाला बाग नरसंहार से पहले अमृतसर और शेष भारत की राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत किया। उन्होंने रॉलेट एक्ट या काला अधिनियम के बारे में बताया जो ब्रिटिश सरकार द्वारा पारित किया गया एक कठोर अधिनियम था, जिसमें पुलिस को बिना किसी कारण के किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार करने का अधिकार प्रदान कर दिया था। इस अधिनियम का उद्देश्य देश में बढ़ती हुए राष्ट्रवादी लहर पर अंकुश लगाना था। गांधी जी ने लोगों से ऐसे दमनकारी “अधिनियम” के खिलाफ सत्याग्रह करने का आह्वान किया था।

जलियांवाला बाग

उन्होंने बताया कि कैसे जलियांवाला बाग उस समय एक बंजर भूमि थी जहां पर लोग प्रायः मिलते रहते थे और शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन के लिए उसका उपयोग करते रहते थे। इससे अंग्रेजों में घबराहट फैल गई क्योंकि उन्होंने अब तक कभी किसी प्रकार के प्रतिरोध का सामना नहीं किया था। डॉ. सैफुद्दीन किचलू और डॉ. सत्यपाल, अमृतसर शहर के जाने-माने राष्ट्रीय नेता थे। उन्होंने रॉलेट एक्ट के खिलाफ सत्याग्रह का आयोजन किया। जलियांवाला बाग में हुई शांतिपूर्ण सभा में सभी संप्रदायों के लोगों ने भाग लिया। इससे अंग्रेजों के बीच बहुत सारी भ्रांतियां और गलतफहमी फैल गई। ब्रिटिश सरकार ने डॉ. किचलू और डॉ. सत्यपाल की गिरफ्तारी का आदेश दिया। उनकी गिरफ्तारी की खबर से अमृतसर के लोगों के बीच से कड़ी प्रतिक्रिया आई।

 गांधी जी की गिरफ्तारी की खबर

 9 अप्रैल 1919 को महात्मा गांधी को भी गिरफ्तार कर लिया गया और लोगों को उनकी गिरफ्तारी के पीछे का कोई भी कारण समझ में नहीं आ रहा था। गांधी जी की गिरफ्तारी की खबर जब 10 अप्रैल को अमृतसर पहुंची तो सड़कों पर बड़ी संख्या में उग्र हुए लोगों की भीड़ जमा हो गई। ब्रिटिश बैंकों में आग लगा दी गई और तीन बैंक प्रबंधकों की हत्या कर दी गई। हिंसा 10 और 11 अप्रैल तक जारी रही। पुलिस द्वारा भीड़ को नियंत्रित करने में असमर्थ होने के बाद, शहर को वास्तविक रूप से मार्शल लॉ के हवाले कर दिया गया। कलेक्टर ने ब्रिगेडियर-जनरल रेजिनाल्ड एडवर्ड डायर को कार्यभार सौंप दिया, जो गोरखा और पठान सैनिकों की टुकड़ी के साथ आए थे।

 पंजाब में मार्शल लॉ का शासन बहुत ही कठोर था। डाक पर प्रतिबंध लगा दिया गया। मंदिरों और मस्जिदों में उपासकों का जाना प्रतिबंधित कर दिया गया। जिन लोगों की राजनीतिक संबद्धता संदिग्ध पाई गई थी, उनके घरों में बिजली और पानी की आपूर्ति को रोक दिया गया। इससे भी बदतर स्थिति तब उत्पन्न हुई जब चुनिंदा विद्रोहियों पर सार्वजनिक रूप से कोड़े बरसाए गए; और एक आदेश जारी किया गया जिसमें उन सभी भारतीयों को सड़क पर रेंगने के लिए मजबूर कर दिया गया, जिन्होंने महिला मिशनरी पर हमला होते हुए देखा था।

सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू की गिरफ्तारी

13 अप्रैल 1919 को डायर ने यह अनुमान लगाया कि एक बड़ा विद्रोह हो सकता है, इसलिए सभी प्रकार की बैठकों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इस नोटिस को व्यापक रूप से फैलाया नहीं गया था, और इसलिए कई ग्रामीण इस बाग में भारतीय त्योहार बैसाखी को मनाने और दो राष्ट्रीय नेताओं, सत्यपाल और सैफुद्दीन किचलू की गिरफ्तारी और निर्वासन का शांतिपूर्ण विरोध करने के लिए एकत्रित हुए। 

जलियांवाला बाग: लगभग 1,650 राउंड गोलियां चलाई गईं

डायर और उसके सैनिकों ने बाग में प्रवेश किया, उनके बाद मुख्य प्रवेश द्वार को अवरुद्ध कर दिया, एक ऊंचाई पर स्थित एक जगह पर मोर्चा संभाल लिया और बिना किसी चेतावनी के भीड़ पर दस मिनट तक लगातार गोलीबारी की, उसने अपनी गोलियों का रुख बहुत हद तक उन कुछ खुले हुए फाटकों की ओर रखा जिसके माध्यम से लोग वहां से भागने की कोशिश कर रहे थे,  गोलियां तब तक बरसती रही जब तक कि गोला-बारूद लगभग समाप्त नहीं हो गया। लगभग 1,650 राउंड गोलियां चलाई गईं। कई छोटे-छोटे बच्चों की मौत हो गई और केवल दो महिलाओं के ही शव प्राप्त हो सके। इस नरसंहार के तीन महीने बाद, मौतों की संख्या की जानकारी के लिए मृत शरीरों की गिनती की गई। यह एक बहुत बड़ा नरसंहार था और इसमें 1,000 से ज्यादा लोग मारे गए। घायल लोगों को दवा के रूप में भी कोई सहायता प्रदान नहीं की गई। इसमें स्थानीय भारतीय डॉक्टरों ने भाग लिया था।

13 अप्रैल 1919 को, ब्रिटिश सरकार ने पंजाब के अधिकांश क्षेत्रों को मार्शल लॉ के अधीन कर दिया। इस कानून ने कई नागरिक स्वतंत्रताओं को प्रतिबंधित कर दिया, जिसमें विधानसभा की स्वतंत्रता भी शामिल थी; चार से ज्यादा लोगों के इकट्ठा होने पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया था। ब्रिटिश सरकार द्वारा इन घटनाओं की जांच के लिए एक समिति का गठन किया गया और हंटर कमीशन रिपोर्ट में अमृतसर की घटनाओं से संबंधित प्राप्त साक्ष्यों को शामिल किया गया। मार्च 1920 में, प्रस्तुत की गई अंतिम रिपोर्ट में, समिति ने सर्वसम्मति से डायर के कार्यों की निंदा की। हालांकि, हंटर समिति ने जनरल डायर के खिलाफ कोई भी दंडात्मक या अनुशासनात्मक कार्रवाई की अनुशंसा नहीं की।

रवींद्रनाथ टैगोर और महात्मा गांधी  ने नाइटहुड’ और कैसर-ए-हिंदकी उपाधि वापस कर दी

रवींद्रनाथ टैगोर ने इसके विरोध में अपनी ‘नाइटहुड’ की उपाधि का त्याग कर दिया और महात्मा गांधी ने कैसर-ए-हिंद की उपाधि वापस कर दी, जो उन्हें बोअर युद्ध के दौरान उनके काम के लिए अंग्रेजों द्वारा सम्मान के रूप में प्रदान की गई थी।

सुश्री रुपिंदर बरार ने अपने समापन भाषण में, अमृतसर के दर्शनीय स्थलों के बारे में बताया जो कि हवाई, रेल और सड़क के माध्यम से बहुत अच्छी तरह से जुड़ा हुआ है।  जलियांवाला बाग, पार्टिशन म्यूजियम, हरिमंदिर साहिब और वाघा बॉर्डर, ग्रैंड ट्रंक रोड के साथ चल रही भारत और पाकिस्तान के बीच की सीमाओं को चिह्नित करती हैं। सूर्यास्त से पहले प्रत्येक दिन आयोजित होने वाली वाघा बॉर्डर सेरेमनी या बीटिंग रिट्रीट सेरेमनी यहां का मुख्य आकर्षण है। प्रत्येक शाम, सूर्यास्त से ठीक पहले, भारतीय और पाकिस्तानी  सेना के सैनिक इस सीमा चौकी पर मिलते हैं, और 30 मिनट के सैन्य सौहार्द और कला प्रदर्शन में शामिल होते हैं। आगंतुक को ढाबों में अद्भुत भोजन का आनंद लेने का अवसर भी प्राप्त होता है।

पर्यटन मंत्रालय अपनी विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत, पर्यटन अवसंरचनाओं और सुविधाओं के विकास पर आवश्यक बल दे रहा है। वर्तमान में, जलियांवाला बाग का जीर्णोद्धार और उन्नयन किया जा रहा है और स्मारक स्थल पर संग्रहालय/ दीर्घाएं और साउंड एंड लाइट शो स्थापित किए जा रहे हैं।(Source: PIB)

जनसंघ से भारतीय जनता पार्टी तक का सफर: Facts in Brief

BJP Facts in Brief

भारतीय जनता पार्टी वर्तमान में  भारतीय संसद और अन्यः राज्य विधानसभाओं में प्रतिनिधित्व के आधार पर भारत की सबसे बड़ी पार्टी है. वर्तमान में 18 से अधिक राज्यों में  भाजपा या उसके गठबंधन की सरकार है. वहीँ पार्टी में बनाये जाने वाले प्राथमिक सदस्यता के आधार पर देखें तो भारतीय जनता पार्टी  दुनिया का सबसे बड़ी पार्टी मानी जाती है.
 भारतीय जनता पार्टी आज अर्थात 06 अप्रैल 2022 को 42 वीं स्थापना दिवस मना रही है. जनसंघ से लेकर भारतीय जनता पार्टी तक का सफर आसान नहीं रहा. डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बाद अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में पार्टी ने काफी संघर्ष किया लेकिन आगे बढ़ने का सफर तमाम कठिनाइयों के बीच में जारी रहा. 

पार्टी ने अपने बेदाग़ नेताओं की छवि और कुशल नेतृत्व के बदौलत आज प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बुलंदी को छू चुकी है, संसद में कभी मात्र 2 सांसदों के पार्टी रही भाजपा आज देश में न केवल गठबंधन सरकारों की युग को ख़त्म कर दिया बल्कि अपनी बदौलत सरकार बनाने के लिए पर्याप्त संख्या भी जुटाने में कामयाब रही. 

  • 1951 डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की अध्यक्षता में अखिल भारतीय जनसंघ की स्थापना 21 अक्टूबर 1951 को  दिल्ली में हुआ.
  • 1952 में संपन्न आम चुनाव में भारतीय जनसंघ ने तीन सीटें जीतीं।
  • 1953 में डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की कश्मीर की जेल में मौत हो गई. 
  • 1957 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनसंघ ने 4 सीटें जीती. 
  • 1962 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनसंघ ने 14 सीटें जीतीं। 
  • 1967 लोक सभा चुनाव में जनसंघ को 35 सीटें मिलीं।
  • 1971 के लोकसभा चुनाव भारतीय जनसंघ ने 22 सीटे  जीती..
  • 6 अप्रैल 1980 को भारतीय जनता पार्टी का गठन 
  • 1984 के लोक सभा चुनाव् में जो इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद हुई थी कांग्रेस की प्रचंड लहर थी और भारतीय जनता पार्टी ने 2 सीटें जीती. 
  • 1986-लालकृष्ण आडवाणी पार्टी के अध्यक्ष बने
  • 1989 के लोक सभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने 85 सीटें जीती. 
  • 1991 के लोक सभा चुनाव में पार्टी ने 120 सीटें जीती. मुरली मनोहर जोशी पार्टी के अध्यक्ष बने. 
  • 1996 लोक सभा चुनाव में भाजपा को 161 सीटें मिलीं
  • 1999 में भाजपा ने 183 सीटें जीती. 
  • 2004 में भाजपा ने 138 सीटें जीती. 
  • 2009 में भाजपा को 116 सीटें मिली. 
  • 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्वे में भाजपा ने ऐतिहासिक विजय प्राप्त करते हुए  282 सीटें जीती. 
  • 2014 के  राजग जो भाजपा का व्यापक गठबंधन है  उसने कुल 336  सीटों पर जीत प्राप्त किया. 
  • उल्लेखनीय है कि 1984 के बाद ऐसा पहली बार हुआ जब भारतीय संसद में किसी एक दल को पूर्ण बहुमत मिला था. 
  • 2019 में भाजपा ने 303 सीटें जीती. 
  • भारतीय जनता पार्टी के मुखपत्र का नाम  'कमल सन्देश' है.

राजा राम मोहन राय की 250 वीं जयंती: Facts in Brief

राजा राम मोहन राय की 250 वीं जयंती:  Facts in Brief

राजा राम मोहन राय की 250 वीं जयंती मनाई जा रही है। एक तरफ जहां देश आजादी का अमृत महोत्सव’ मन रहा है, ऐसे समय देश के विख्यात समाज सुधारक और विद्वान राजा राम मोहन राय की जान की 250वीं जयंती खास आयोजन है।

इसी क्रम में केंद्रीय संस्कृति मंत्रालय 22 मई, 2022 से 22  मई, 2023 तक राजा राम मोहन राय की 250वीं जयंती मना रहा है। 

उद्घाटन समारोह राजा राम मोहन राय पुस्तकालय प्रतिष्ठान, सॉल्ट लेक, कोलकाता और विज्ञान नगरी प्रेक्षागृह, कोलकाता में आयोजित किया जायेगा। संस्कृति, पर्यटन और उत्तरी पूर्वी क्षेत्र मंत्री श्री जी. किशन रेड्डी तथा पश्चिम बंगाल के राज्यपाल श्री जगदीप धनकड़ 22 मई, 2022 को समारोह की शोभा बढ़ायेंगे।

संस्कृति मंत्री श्री जी. किशन रेड्डी, 11 बजे पूर्वाह्न राजा राम मोहन राय पुस्तकालय प्रतिष्ठान, कोलकाता में वर्चुअल माध्यम से राजा राम मोहन राय की प्रतिमा का अनावरण करेंगे।

सॉल्ट लेक, विज्ञान नगरी प्रेक्षागृह, कोलकाता में कई अन्य कार्यक्रम भी होंगे। बच्चों के लिये एक संगोष्ठी और क्विज कार्यक्रम का भी आयोजन किया जायेगा। श्री राजा राम मोहन राय के जीवन के विभिन्न पक्षों पर एक मल्टी-मीडिया प्रस्तुतिकरण भी पेश किया जायेगा।

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Nowruz 2022: इम्प्रेसिव गूगल डूडल के माध्यम से जानें नवरोज के बारे में विस्तृत जानकारी-Facts in Brief

Nowruz 2022 History Importance Facts in Brief

Nowruz 2022:
नवरोज़ 2022 के अवसर पर गुगल ने बहुत ही सुन्दर डूडल पोस्ट किया है जो कि ईरानी नव वर्ष अर्थात पारसी लोगों के लिए महत्वपूर्ण दिन  होता है.  नॉरूज़ सौर हिजरी कैलेंडर के पहले महीने की शुरुआत का प्रतीक है  जो सामान्यत: 20 या 21 मार्च को विश्व स्तर पर मनाया जाता है। गूगल डूडल में माध्यम से नवरोज के आयोजन से सम्बंधित  विस्तृत जानकारी प्राप्त करने के लिए आइये जानते हैं क्या है Nowruz 2022का इतिहास, किन देशों में इसे मनाते हैं और अन्य विस्तृत जानकारी. 

नवरोज़ वास्तव में ईरानी नव वर्ष जो वसंत ऋतु की शुरुआत का प्रतीक है, भारत सहित दुनिया भर में विभिन्न पारसी समुदायों के बीच बहुत उत्साह  के साथ मनाया जाता है। नव शब्द का यहाँ मतलब होता है नया तथा रोज का मतलब दिन अर्थात नए दिन से है जो कि  साल के प्रथम दिन के तौर  मनाया जाता है. 

इतिहास

ऐसी मान्यता है की नवरोज का त्योहार फारसी राजा जमशेद के नाम पर रखा गया है, जिन्हें फारसी या शहंशाही कैलेंडर बनाने का श्रेय दिया जाता है।

उल्लेखनीय है कि  नॉरूज़ सौर हिजरी कैलेंडर के पहले महीने की शुरुआत का प्रतीक है  जो सामान्यत: 20 या 21 मार्च को विश्व स्तर पर मनाया जाता है। 

नवरोज सामान्यत: फ़ारसी सांस्कृतिक के प्रभाव वाले कई देशों में मनाया जाता है जिसमें शामिल हैं ईरान, इराक, भारत, अफगानिस्तान तथा  मध्य एशिया  के कई देश।

इस दिन को पारसी लोग  काफी महत्वपूर्ण दिन मानते हैं और उनका विश्वास होता है कि  अच्छे कर्म करने और अच्छे शब्द बोलने के लिए यह दिन सबसे उपयुक्त होता है इस दिन को पारसी लोग  काफी धूमधाम से मनाते है और इसके लिए वे अपने पारंपरिक परिधान में तैयार होते हैं, अपने घरों को रोशनी और रंगोली से सजाते हैं. 

इस दिन पारसी लोग विभिन्न  प्रकार के पकवान और स्वादिष्ट भोजन तैयार करते हैं। स्वादिष्ट और अलग-अलग पकवान से वे घर आये मेहमानों का स्वागत करते हैं और उन्हें बधाई और सुभकामनाएँ भी देते हैं. 

छत्रपति शिवाजी महाराज: Facts in Brief

Chhatrapati Shivaji Maharaj Facts in Brief
Chhatrapati Shivaji Maharaj: छत्रपति शिवाजी महाराज अपनी बहादुरी और रणनीति के लिए जाने जाते थे जिसके साथ उन्होंने मुगलों के खिलाफ कई युद्ध जीते।  उन्हें उनके प्रशासन, साहस और युद्ध कौशल के लिए पहचाना जाता है। इस वर्ष, हम छत्रपति शिवाजी महाराज की 392वीं जयंती मना रहे हैं। 

  1. शिवाजी ने स्वराज्य मूल्यों और मराठा विरासत को कायम रखते हुए अपने प्रशासनिक कौशल से इतिहास में अपना एक शाही नाम स्थापित करने का श्रेय दिया जाता है 
  2. छत्रपति शिवाजी महाराज का जन्म 19 फरवरी, 1630 को शिवनेरी किले में हुआ था। इस दिन को छत्रपति शिवाजी महाराज जयंती के रूप में  पारंपरिक शैली के साथ मनाया जाता है।
  3. वास्तव में, उनका नाम एक क्षेत्रीय देवी शिवई के नाम पर रखा गया था। उनकी माँ ने देवी से एक पुत्र के लिए प्रार्थना की और उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति हुई।
  4. शिवाजी महाराज अपनी मराठा सेना के माध्यम से गुरिल्ला युद्ध के लड़ने की तकनीक पेश करने वाले पहले व्यक्ति थे। नौसेना के गठन के लिए भी शिवाजी को श्रेय दिया जाता है. 
  5. शिवाजी महाराज ने अपने समय की भाषा, जो फारसी थी, को खत्म करने के लिए  कोशिश किया था. इसके अंतर्गत उन्होंने अदालत और प्रशासन में मराठी और संस्कृत जैसी क्षेत्रीय भाषाओं के इस्तेमाल को भी बढ़ावा दिया।

चरखा- भारत के लिए एक राजनीतिक और भावनात्मक प्रतीक और महात्मा गांधी का उपहार है: Facts in Brief

विश्व इतिहास में कहीं भी आपको भारत के मामले की तरह एक कपड़े के आसपास उपनिवेशवाद विरोधी कहानी नहीं मिलेगी। विदेशी कपड़े के बहिष्कार से लेकर हैंडस्पून, हैंडवॉन्च खद्दर, चरखा भारत के लिए एक राजनीतिक और भावनात्मक प्रतीक है और यह कहानी एक व्यक्ति महात्मा गांधी का उपहार है, जिनकी दृष्टि एक आत्मनिर्भर गांव और आध्यात्मिक सफाई के लिए सभी को चरखे के सूत से बंधना था। वेबिनार में भारत के स्वतंत्रता संग्राम में खादी के आयामों की पड़ताल की गई और समकालीन खादी और बापू के संदेश के प्रसार में बेंगलुरु स्थित निफ्ट की यात्रा का जांच की गई।

पर्यटन मंत्रालय ने देखो अपना देश वेबिनार श्रृंखला के तहत महात्मा गांधी की जयंती के अवसर पर 02 अक्टूबर, 2020 को एक वेबिनार "चरखे पे चर्चा" का आयोजन किया। वेबिनार का विषय "चरखे पे चर्चा" था, जिसमें चरखा और खादी पर ध्यान केंद्रित किया गया है। खादी, राष्ट्र का नैतिक परिधान है जो स्वराज्य और स्वावलंबन का एक रूपक है। 

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बेंगलुरु स्थित निफ्ट की निदेशक सुश्री सुसान थॉमस और बेंगलुरु स्थित निफ्ट में डिपार्टमेंट ऑफ़ डिज़ाइन स्पेस में एसोसिएट प्रोफेसर श्री प्रशान्त कोचुवेतिल चेरियन ने कार्यक्रम प्रस्तुत किया। कार्यक्रम की शुरूआत गांधीजी के थ्री पीस शूट से की गई जब वे दक्षिण अफ्रीका में वकील थे। 1915 में जब वे भारत लौटे, तो उन्होंने ठेठ गुजराती पोशाक पहनना शुरू कर दिया। तब रवींद्रनाथ टैगोर ने 1915 में उन्हें 'महात्मा' कहा। यह मदुरै था जिसने पूर्ण अर्थ में गांधी को महात्मा बनाया। इसके लिए, यहीं पर उन्होंने पश्चिमी परिधान का परित्याग किया और खादी पहना जो उनकी मृत्यु तक उनका प्रतीक चिन्ह बना रहा।
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महात्मा गांधी ने 1918 में भारत के गांवों में रहने वाले गरीब लोगों के लिए राहत कार्यक्रम के रूप में खादी के लिए अपना आंदोलन शुरू किया। आत्मनिर्भरता और अपनी सरकार के लिए एक विचारधारा के लिए कताई और बुनाई को आगे बढ़ाया गया था। सभी गांव सूत के लिए अपना कच्चा माल तैयार करेगा। सभी महिला और पुरुष कताई करेगा और सभी गांव अपने स्वयं के उपयोग के लिए जो कुछ भी आवश्यक होगा, उसकी बुनाई करेगा। गांधी ने इसे विदेशी सामग्रियों पर निर्भरता के अंत के रूप में देखा और इस तरह पहला पाठ या वास्तविक स्वतंत्रता दी। उस समय पूरा कच्चा माल इंग्लैंड निर्यात किया जाता था और फिर महंगे तैयार कपड़े के रूप में फिर से आयात किया जाता था। इससे स्थानीय आबादी को इसमें काम और लाभ नहीं​ मिलता था। खादी आंदोलन की शुरूआत केवल राजनीतिक नहीं था बल्कि यह आर्थिक, सांस्कृतिक और सामाजिक कारणों के लिए था।

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20 सितंबर, 1921 को मदुरई की अपनी दूसरी यात्रा के दौरान गांधी पश्चिम मासी स्ट्रीट में रुके थे और जब उन्होंने दिहाड़ी मजदूरों को बिना शर्ट के काम करते हुए देखा तो वह उनकी दुर्दशा से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने अपने परिधान त्याग दिए और 21 सितंबर की रात में चार मीटर की खादी की धोती पहनी।

अगले दिन 22 सितंबर, 1922 को वह कामराज स्ट्रीट में एक जगह पर लोगों को संबोधित करने गए। उस जगह को अब ‘गांधी पोट्टल’ कहा जाता है। संबोधन के दौरान उन्होंने केवल खादी वेष्टि पहन रखी थी, जिस पर लोगों ने उनसे उसका कारण पूछा। 1921 में जिस स्थान पर वह रहे वहां अब खादी क्राफ्ट की दुकान है लेकिन इमारत में एक पत्थर पर परिधान के ऐतिहासिक परिवर्तन की कहानी बताई गई है।

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1934-35 में उन्होंने गरीबों की मदद करने से लेकर पूरे गाँवों को आत्मनिर्भर बनाने के विचार का विस्तार किया। 1942-43 में उन्होंने पूरे देश में बड़े पैमाने पर पूरे कार्यक्रम को फिर से आयोजित करने के लिए श्रमिक समूहों और गाँव के आयोजकों के साथ सभाएं की। इस प्रकार खादी केवल कपड़े का टुकड़ा नहीं बल्कि जीवन का एक तरीका बन गया।

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श्री प्रशांत कोचुवेतिल चेरियन ने अपनी प्रस्तुति की शुरुआत खादी की कहानी से की। भारत के स्वतंत्रता संग्राम के प्रतीक के रूप में खादी का जन्म साबरमती आश्रम में हुआ। आश्रम की वस्तुओं में से एक यह था कि सभी निवासियों को भारतीय धागों से बने हाथ से बुने हुए कपड़े पहनने चाहिए। सवाल था कि हाथ से काता जाने वाला सूत कैसे बनाया जाए। चरखा उपलब्ध नहीं था और न ही कोई व्यक्ति था जो कताई सिखा सके। आश्रम में जो समस्या आ रही थी गंगाबेन मजूमदार ने उसका हल निकाला। मजूमदार से गांधीजी ब्रोच एजुकेशनल कॉन्फ्रेंस में मिले थे। उन्हें बड़ौदा राज्य के विजापुर में गांधीजी के लिए चरखा मिला। इस प्रकार, चरखा आश्रम में आया और खादी का उत्पादन शुरू हुआ। उसके बाद से गांधीजी ने केवल हाथ से बुने हुए धागे से बनी धोती पहनी। खादी स्वदेशी की अंतिम परिभाषा बन गई।

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श्री प्रशांत ने एकीकृत उत्पाद मैपिंग, डिजाइन इंटरवेशन, उत्पाद विविधीकरण और विकास, प्रशिक्षण और विपणन गतिविधियों के माध्यम से कर्नाटक राज्य खादी और ग्रामोद्योग बोर्ड ब्रांड को समकालीन खादी और मजबूत बनाने में एनआईएफटी द्वारा निभाई गई भूमिका पर प्रकाश डाला। नम्मा खादी की यात्रा ब्रांड कर्नाटक खादी के गौरव और स्थिति को बहाल करने की एक पहल थी।

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कर्नाटक में धारवाड़ एकमात्र स्थान है जहाँ रंगीन कपास उगाई जाती है। निफ्ट बेंगलुरु के विशेषज्ञों के एक पैनल ने समीक्षा के लिए 400 से अधिक उत्पादों का डिजाइन किया है और इनकी पुनर्समीक्षा केएसकेएंडवीआईबी के अध्यक्ष और कई कारीगरों की उपस्थिति में की गई और कई व्यवहार्य उत्पादों का चयन कारीगरों को प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए किया गया। इस व्यवसाय के हितधारकों से मिली प्रतिक्रिया बहुत उत्साहजनक रही है। उन्होंने आगे कहा कि केएसकेएंडबीआईबी के सहयोग और साझेदारी के साथ निफ्ट न केवल भारत में बल्कि वैश्विक स्तर पर भी समकालीन बाजार के लिए ब्रांड खादी को प्रभावी ढंग से पेश करने में सक्षम होगा।

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अतिरिक्त महानिदेशक रुपिंदर बराड़ ने वेबिनार को बधाई दी और कहा कि हमें न केवल अपनी विरासत और संस्कृति पर गर्व करना चाहिए बल्कि खादी खरीद और पहन कर कारीगरों के उत्थान और प्रोत्साहन की दिशा में भी कुछ करना चाहिए। हमारे लिए यह महत्वपूर्ण है कि हम गांधीजी द्वारा हमें दिखाई गई मूल्य प्रणालियों को जिएं और उन्हें दूर-दूर तक फैलाएं। देखो अपना देश वेबिनार श्रृंखला एक भारत श्रेष्ठ भारत के तहत भारत की समृद्ध विविधता को प्रदर्शित करने का एक प्रयास है। (Source: PIB)



Parakram Diwas 2022 -नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 125वीं जयंती-Facts in Brief

Parakram Divas Subhash Chandra Bose Facts you Need to Know
Parakram Diwas 2022: महान स्वतंत्रता सेनानी नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 125वीं जयंती मनाई जा रही है। कृतज्ञ राष्ट्र उनकी जयंती पर हर साल 23 जनवरी को पराक्रम दिवस के रूप में मनाता है। " तुम मुझे खून दो, मैं तुम्‍हें आजादी दूंगा.." जैसे  नारा जिसने आजादी की लड़ाई में एक नया जूनून पैदा करने का काम किया था उसके रचइता नेताजी सुभाष चंद्र बोस का जन्म 23 जनवरी 1897 को ओडिशा, बंगाल डिविजन के कटक में हुआ था। सुभाष चंद्र बोस  के पिता का नाम जानकीनाथ बोस और मां का नाम प्रभावती था।

  1. नेताजी सुभाष चंद्र बोस कॉलेज  शिक्षा समाप्त करने का बाद अपने माता-पिता की इच्छा के अनुसार  इंडियन सिविल सर्विसेज की तैयारी के लिए इंग्लैंड के कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय चले गए । कु
  2. शाग्र बड़ी और कड़ी मेह्नत के दम  पर बोस ने 1920 में सिविल सेवा परीक्षा पास की हालाँकि  लेकिन अप्रैल 1921 में उन्होंने भारत में चल रहे आंदोलनों में शामिल होने के कारण अपने पद से इस्तीफा दे दिया और आजादी के आंदोलन में शामिल हो गए।
  3. सुभाष चंद्र बोस को 1938 में हरीपुरा अधिवेशन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का निर्विरोध अध्यक्ष चुना गया। 
  4. 1939 में उन्होंने फॉरवर्ड ब्लॉक का गठन किया । 1942 में आज़ाद हिंद रेडियो से कई भाषाओं में नियमित प्रसारण शुरू किया।
  5. सुभाष चंद्र बोस ने  1 सितंबर 1942 को आजाद हिन्द फौज (Indian National Army) का गठन किया। विमान दुर्घटना 18 अगस्त 1945 में उनका निधन हो गया।


सेलुलर जेल – बलिदान का मूर्त रूप: Facts in brief

Cellular Jail-Things You Need to Know

(लेखक-एस. बालाकृष्‍णन)

“ओ, मेरी प्रिय मातृभूमि, तुम क्‍यों आंसू बहा रही हो?

विदेशियों के शासन का अंत अब होने को है!

वे अपना सामान बांध रहे हैं!

राष्‍ट्रीय कलंक और दुर्भाग्‍य के दिन अब लदने ही वाले हैं! 

आजादी की बयार अब बहने को है,

आजादी के लिए तड़प रहे हैं बूढ़े और जवान!

जब भारत गुलामी की बेडि़यां तोड़ेगा,

‘हरि’ भी अपनी आजादी की खुशियां मनायेगा!’’


यह ‘हरि’ कौन हैं, जो अपनी आजादी की खुशियां मनाने को आतुर है? श्री बाबू राम हरि पंजाब के गुरदासपुर जिले के कादियां के रहने वाले थे और ‘स्‍वराज्‍य’ के संपादक थे। उन्‍हें अपने तीन संपादकीयों को ब्रिटिश हुक्‍मरानों द्वारा ‘राजद्रोह’ करार दिये जाने के कारण अंडमान की सेलुलर जेल में 21 वर्ष की कैद हुई थी।

इस तरह भारत की आजादी का ख्‍वाब संजोने वाले लोगों को ब्रिटिश हुक्‍मरानों द्वारा ऐसे ही बेरहमी से कुचला गया था। भयानक सेलुलर जेल, बलिदान की ऐसी ही एक वेदी थी। कालकोठरी की सजा के लिए इस विशेष तरह की कोठरियों के इंतजाम वाली (इसलिए इसे सेलुलर जेल का नाम दिया गया) इस जेल का नाम भारत की आजादी के संघर्ष के साथ अमिट रूप से जुड़ा हुआ है। 

 भारतीय बेस्टिल 

नेताजी सुभाष चन्‍द्र बोस ने उचित रूप से ही इस जेल को ‘भारतीय बेस्टिल’ कहकर पुकारा था। दूसरे विश्‍व युद्ध के दौरान, अंडमान पर जापानियों द्वारा जीत हासिल किए जाने के बाद 8 नवंबर, 1943 को जारी वक्‍तव्‍य में नेताजी ने कहा था, ‘‘जिस तरह फ्रांस की क्रांति के दौरान सबसे पहले पेरिस के बेस्टिल के किले को मुक्‍त कराकर वहां बंद राजनीतिक कैदियों की रिहाई कराई गई थी, उसी तरह भारत के स्‍वाधीनता संग्राम के दौरान अंडमान को भी, जहां भारतीय कैदी यातनाएं भोग रहे हैं, सबसे पहले मुक्‍त कराया जाना चाहिए।’’ (हालांकि, बाद में सहयोगी देशों ने इस द्वीप पर दोबारा कब्‍जा जमा लिया था।)    

कैदियों की बस्तियां

ब्रिटिश उपनिवेश भारत और बर्मा में संगीन अपराधों के लिए दोषी ठहराये गये कैदियों के लिए बैंकोलिन (सर्वप्रथम 1787 में), मल्‍लका, सिंगापुर, अराकान और तेनास्‍सेरिम में कैदियों की बस्तियां स्‍थापित की गईं। अंडमान की जेल इस श्रृंखला की आखिरी कड़ी और भारतीय सरजमीं पर स्‍थापित होने वाली अपने किस्‍म की पहली जेल थी। हालांकि, इससे काफी पहले 1789 में ही पोर्ट कॉर्नवालिस, उत्तरी अंडमान में कैदियों की बस्‍ती स्‍थापित की गई थी, लेकिन सात साल बाद उसे खाली कर दिया गया था।


ब्रिटिश हुक्‍मरानों ने आजादी के प्रथम स्‍वाधीनता संग्राम (1857), को ‘सिपाहियों की बगावत’ का नाम दिया था और इसी के मद्देनजर कैदियों की बस्‍ती का विचार पुन: जीवित हो उठा। तथाकथित बागियों, भगोड़ों और विद्रोहियों को निर्वासित और कैद करने के लिए दूर-दराज के इलाके - अंडमान का चयन किया गया। 10 मार्च, 1858 को 200 ‘गंभीर राजनीतिक अपराधियों’ के पहले जत्थे ने दक्षिण अंडमान में पोर्ट ब्लेयर बंदरगाह के अंतर्गत चाथलाम द्वीप के छोर पर कदम रखा। 216 कैदियों का दूसरा जत्‍था पंजाब सूबे से आया। 16 जून, 1858 तक यहां पहुंचने वाले कैदियों की कुल तादाद 773 हो गई, 64 कैदियों ने अस्‍पताल में दम तोड़ दिया था, फरार होने और दोबारा हाथ न आने वाले कैदियों की संख्‍या 140 थी, एक कैदी ने आत्‍महत्‍या की थी, फरार होने के बाद दोबारा पकड़े जाने पर फांसी पर लटकाये गये कैदियों की संख्‍या 87 थी, यह जगह छोड़ने वाले कैदियों की संख्‍या 481 थी। 28 सितंबर, 1858 तक यहां करीब 1330 कैदी पहुंच चुके थे। 1858 और 1860 के बीच देश के कोने-कोने से लगभग 2,000-4,000 स्‍वाधीनता सेनानियों को अंडमान भेजा जा चुका था। दुखद बात यह है कि उनमें से अधिकांश ने जीने की और कार्य करने की बेहद पीड़ादायक परिस्थितियों के कारण दम तोड़ दिया। फरार होकर जंगल की ओर भागने वालों में से कोई भी जीवित न बच सका। बाद में आपराधिक मामलों में दोषी ठहराये गए लोगों को भी कड़ी सजा के लिए यहीं भेजा जाने लगा। एक सदी के बाद, 15 अगस्‍त, 1957 को पोर्ट ब्‍लेयर में ‘शहीद स्‍तम्‍भ’ प्राण न्‍यौछावर करने वाले अचर्चित और गुमनाम शहीदों को समर्पित किया गया।

सेलुलर जेल

ब्रिटिश हुक्‍मरानों को डर था कि राजनीतिक कैदी दूसरे कैदियों के बीच अपने क्रांतिकारी विचारों को फैलाने लगेंगे और उनके समूह के साथ घुलने-मिलने लगेंगे। लिहाजा, उन्‍होंने एक दूर-दराज के इलाके में कालकोठरियां बनाने का फैसला किया। इस प्रकार 1906 में कुख्‍यात सेलुलर जेल पूर्ण हो गई, जिसकी कालकोठरियों की संख्‍या बढ़कर 693 हो गई! जैसे-जैसे स्‍वाधीनता संग्राम जोर पकड़ने लगा, 1889 में पूना से 80 क्रांतिकारियों को निर्वासित कर यहां भेजा गया। जैसे-जैसे स्‍वाधीनता संग्राम में उफान आया, 132 लोगों (1909- 1921), उसके बाद (1932-38) में 379 लोगों को यहां भेजा गया। विभिन्‍न तरह के षडयंत्र के मामलों में शामिल राजनीतिक कैदियों को सेलुलर जेल भेजा गया। इनमें से कुछ मामलों में अलीपुर बम मामला (माणिकटोला षडयंत्र मामले के नाम से भी चर्चित), नासिक षडयंत्र मामला, लाहौर षडयंत्र मामला (गदर पार्टी के क्रांतिकारी), बनारस षडयंत्र मामला, चटगांव शस्‍त्रशाला मामला, डेका षडयंत्र मामला, अंतर-प्रांतीय षडयंत्र मामला, गया षडयंत्र मामला और बर्मा षडयंत्र मामला आदि शामिल हैं। इनके अलावा, वहाबी विद्रोहियों, मालाबार तट के मोपला प्रदर्शनकारियों, आंध्र के रम्‍पा क्रांतिकारियों, मणिपुर स्‍वाधीनता सेनानियों, बर्मा के थावरडी किसानों को भी अंडमान भेजा गया।

जेल में जीवन

सेलुलर जेल में जीवन विशेषकर शुरुआती कैदियों के लिए बेहद अमानवीय और बर्बर था। राजनीतिक कैदियों को बहुत कम भोजन और कपड़े दिये जाते थे और उनसे कड़ी मशक्‍कत कराई जाती थी। ऐसी कठोर मेहनत की आदत न होने के कारण वे अपना रोज के काम का कोटा पूरा नहीं कर पाते थे, जिसके कारण उन्‍हें गंभीर सजा भुगतनी पड़ती थी। ऐसे व्‍यवहार का मकसद उन राजनीतिक कैदियों को अपमानित करना और उनकी इच्‍छा शक्ति को तार-तार करना था। उन्‍हें कोल्‍हू पर जोता जाता था, उनसे नारियल छिलवाये जाते थे, नारियल के रेशों की पिसाई कराई थी, रस्‍सी बनवाई जाती थी, पहाड़ तोड़ने के लिए भेजा जाता था, दलदली जमीन की भरत कराई जाती थी, जंगल साफ कराये जाते थे, सड़कें बिछवाई जाती थी आदि। सबसे भयानक काम ‘मोटे सान की कटाई’ बहुत अधिक अम्‍लता वाली रामबन घास, ‘रस्‍सी बनाने की कला’ थी, जिसके बाद लगातार खुजली, खरोंचना और रक्‍तस्राव जैसे तकलीफें होती थीं!

भूख हड़ताल   

जुलाई 1937 में जब भारत के सात सूबों में कांग्रेस मिनिस्‍ट्रीज का गठन हुआ, तो सेलुलर जेल के राजनीतिक कैदियों को मुख्‍य भूमि में भेजे जाने की मांग जोर पकड़ने लगी। जब बार-बार की अपीलों और प्रदर्शनों का कोई नतीजा न निकला तो उनमें से 183 लोग 24 जुलाई, 1937 से, 37 दिन की भूख हड़ताल पर बैठ गये। इससे उनके समर्थन की लहर उठी और मुख्‍य जेलों में बंद उनके साथियों ने भी भूख हड़ताल शुरू कर दी। देश भर में विरोध प्रदर्शन हुए। आखिरकार अंग्रेजों को झुकना पड़ा और 22 सितंबर 1937 को स्‍वाधीनता से‍नानियों का पहला जत्‍था अंडमान से रवाना हुआ। आखिरी जत्‍था भी 18 जनवरी, 1938 तक अंडमान से रवाना हो गया। आपराधिक मामलों के दोषियों की वहां से रवानगी 1946 तक जारी रही, जब कैदियों की इस बस्‍ती को बंद कर दिया गया।

राष्‍ट्रीय स्‍मारक  

इस जेल में अनेक करिश्‍माई हस्तियों को बंदी बनाकर रखा गया। उनमें अन्‍य लोगों के अलावा सावरकर बंधु, मोतीलाल वर्मा, बाबू राम हरि, पंडित परमानंद, लढ्डा राम, उलास्कर दत्त, बरिन कुमार घोष, भाई परमानंद, इंदु भूषण रॉय, पृथ्वी सिंह आजाद, पुलिन दास, त्रैलोकीनाथ चक्रवर्ती, गुरुमुख सिंह शामिल हैं। यह फेहरिस्‍त लंबी और विशिष्‍ट है। सेलुलर जेल में बंद रहे हमारे स्‍वाधीनता संग्राम सेनानियों के अमूल्‍य बलिदान की याद और सम्‍मान में 11 फरवरी, 1979 में तत्‍कालीन प्रधानमंत्री श्री मोरारजी देसाई द्वारा इसे राष्‍ट्रीय स्‍मारक के रूप में राष्‍ट्र को समर्पित किया गया। वहां का संग्रहालय और साउंड एंड लाइट शो जेल के कठिन जीवन की झलक प्रस्‍तुत करते हैं, जहां उन लोगों ने सिर्फ इसलिए कुर्बानियां दी, ताकि हम आजादी और शांति के साथ जी सकें। सेलुलर जेल यूनेस्को की विश्‍व धरोहर स्‍थल की संभावित सूची में शामिल हैं, क्‍योंकि राष्‍ट्रीय स्‍तर पर उसकी तुलना में कोई और स्‍थान नहीं है।

किसी जमाने में भयावह स्‍थान रही यह सेलुलर जेल, अब एक राष्‍ट्रीय स्‍मारक बन चुकी है, जो बलिदान का मूर्त रूप है, एक ऐसा स्‍थान है, जो हमें याद दिलाता है कि हमें आजादी बड़ी मुश्किलों से मिली है। (साभार PIB)

 (लेखक चेन्‍नई में स्‍वतंत्र पत्रकार हैं। इस लेख में व्‍यक्‍त किए गये विचार लेखक के निजी विचार हैं।)

मनीष सिसोदिया ने काॅफी टेबुल बुक ”बापू - द अनफाॅरगेटेबल” का लोकार्पण किया

बापू अपने जीवन में कुल 80 बार दिल्ली आए थे और यहां उन्होंने अपने जीवन के 720 महत्वपूर्ण दिन गुजारे। इसलिए दिल्ली सरकार ने दिल्ली से जुड़ी बापू की महत्वपूर्ण स्मृतियों को संकलित किया है। उपमुख्यमंत्री   मनीष सिसोदिया ने आज दिल्ली से जुड़ी महात्मा गांधी की स्मृतियों पर एक महत्वपूर्ण संकलन का लोकार्पण किया। ”बापू - द अनफाॅरगेटेबल” शीर्षक इस काॅफी टेबुल बुक में बापू के जीवन के कई अनछुए पहलुओं की सचित्र प्रस्तुति की गई है। महात्मा गांधी की 151 वीं जयंती पर इसका लोकार्पण करते हुए श्री सिसोदिया ने एक वेबिनार को भी संबोधित किया। 

लोकार्पण करते हुए श्री सिसोदिया ने कहा कि आज सामाजिक पतन की इतनी घटनाएं देखकर हम महात्मा गांधी की जरूरत पहले से कहीं ज्यादा महसूस कर रहे हैं। आज बापू होते तो किस तरह हम सब पर दबाव डालकर हमारे सामाजिक उत्थान की कोशिश कर रहे होते, यह समझने की कोशिश करनी चाहिए। गांधी जी के बाद उनके जैसा कोई मजबूत व्यक्तित्व नहीं मिल सका, जो समाज का पतन रोक सके। 

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श्री सिसोदिया ने कहा कि स्वच्छता, शांति और आत्मनिर्भरता जैसी चीजें महज कोई नारा नहीं बल्कि हमारा जीवन दर्शन हैं। ऐसी बातें करने वाला व्यक्तित्व जब खुद मजबूत हो और इन चीजों को अपने जीवन में उतारता हो, तभी समाज में चेतना जग पाती है।

श्री सिसोदिया ने कहा कि राजनीतिक सामाजिक पतन को देखते हुए बापू की कमी काफी महसूस हो रही है। हम उनके जीवन दर्शन से प्रेरणा लेकर जीवन में बदलाव लाने की गंभीर कोशिश करें, तभी सामाजिक उत्थान होगा। श्री सिसोदिया ने दिल्ली अभिलेखागार और कला संस्कृति विभाग को इस संकलन के लिए बधाई दी। साथ ही, इसके प्रकाशन से जुड़े एचटी मीडिया हाउस को भी बापू के जीवन से जुड़े महत्वपूर्ण चित्रों और स्मृतियों के संकलन के लिए आभार प्रकट किया।

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श्री सिसोदिया ने कहा कि पिछले साल गांधीजी की 150 वीं जयंती के दौरान ही ऐसे प्रकाशन का विचार सामने आया था। बापू की सक्रियता दुनिया और देश के विभिन्न हिस्सों में रही, इसलिए उन्हें किसी एक जगह से जोड़कर नहीं देखा जा सकता। लेकिन दिल्ली भी बापू की कर्मभूमि रही और उनकी गतिविधियों का महत्वपूर्ण केंद्रबिंदु रही है दिल्ली।

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 बापू अपने जीवन में कुल 80 बार दिल्ली आए थे और यहां उन्होंने अपने जीवन के 720 महत्वपूर्ण दिन गुजारे। इसलिए दिल्ली सरकार ने दिल्ली से जुड़ी बापू की महत्वपूर्ण स्मृतियों को संकलित किया है। श्री सिसोदिया ने कहा कि इस संकलन से गांधी के होने का मतलब समझना आसान होगा तथा उनके जीवन दर्शन को जानने का मौका मिलेगा। श्री सिसोदिया ने कहा कि बापू ने दिल्ली में जिन संस्थाओं की स्थापना की, उनके बारे में भी इस संकलन में महत्वपूर्ण जानकारी दी गई है।