हमें कोई अधिकार नहीं है कि हम कुछ अपने गलत आदतों या मानवीय दुष्कृतियों जैसे लोभ, लालच, द्वेष आदि के कारण उन अपनों से मुँह मोड़ लेना जिनके बगैर कभी हम जीने की कल्पना भी नहीं कर सकते थे. आये दिन आप यह पढ़ते हैं कि छोटे-छोटे विवादों में भाई न भाई पर आघात किया, क्या इसे प्रासंगिक कही ना सकती है. वही दोनों भाई जब छोटे होते हैं तो एक के बगैर दूसरा नहीं रह पाता लेकिन घृणा, लालच और उपेक्षा जब दोनों के बीच में आ जाती है तो एक दूसरे के वे शत्रु बन जाते हैं वह भी तब जब वे समझदार हो जाते हैं. क्या यही है हमारी शिक्षा और नैतिकता की चरम स्थिति.
आज की इस व्यस्त जीवन शैली में मौजूद परेशानियों ओर जीवन के भागदौड़ में अक्सर हम अपनों से दूर होते जा रहे हैं। निसंदेह आज के इस दौड़ में जहां जीवन की प्रगति का माध्यम भी इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों से मापी जाती है, ऐसी स्थिति में यह स्वाभाविक भी है।
लेकिन क्या जीवन में संबंधों की गलाघोंटने और उन्हें खत्म करने के लिए सिर्फ व्यस्त जीवनशैली ही जिम्मेदार है? क्या यह सच नहीं कि हम अपने कर्मों और अपने आचरणों से इन संबंधों की हत्या कर अपने संबंधियों से दूर नही होते जा रहे।
सच तो यह है कि सम्बन्धों की कभी भी अपनी स्वाभाविक मृत्यु नहीं होती है बल्कि इनकी हत्या सदैव मनुष्य ही अपने कर्मों या असामान्य और कभी कभी कभी जान बूझकर अपने कलुषित आचरणों से इनकी हत्या करता है।
आखिर ये मानवीय भूल या आचरण ही तो हैं जिन्हे हम घृणा कहें या क्रोध या लालच, को अक्सर हमारे अपनों को हमसे दूर करते हैं।
कभी हम उपेक्षा करके या कभी भ्रम या संदेह से तो इन संबंधों का पलीता लगाते हैं जो न केवल हमें अपनों से दूर करते हैं बल्कि हमें अकेला बनाकर आने वाली पीढ़ियों के लिए एक जहरीला परिवेश का निर्माण करते हैं।
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