प्रसून जोशी से पूछा गया कि बॉलीवुड की फिल्में क्यों नहीं चल रही हैं? क्या क्रिएटिवटी की धारा सूख गई है? इसपर वो कहते हैं- फिल्म इंडस्ट्री को आत्ममंथन की जरूरत है. बॉलीवुड को जीवित जड़ों के साथ उगना होगा. उन्हें समझना होगा कि उनकी जड़ें कहां हैं? बहुत जरूरी है फिल्ममेकर्स का अपनी फिल्म के विषय को दूरदर्शिता के हिसाब से चुनना.
क्यों नहीं चल रहीं बॉलीवुड की फिल्में?
प्रसून जोशी से पूछा गया कि बॉलीवुड की फिल्में क्यों नहीं चल रही हैं? क्या क्रिएटिवटी की धारा सूख गई है? इसपर वो कहते हैं- फिल्म इंडस्ट्री को आत्ममंथन की जरूरत है. मैंने पहले भी कहा है कि शुरुआत में जब फिल्में बनना शुरू हुई थी, तब उनके पास अडवांटेज था. उन्हें ऑथेंनिक स्टोरी मिल रही थी. वो कहां से आ रही थी? पौराणिक कहानियों से, रबिन्द्रनाथ और चट्टोपाध्याय से, इन सभी से कहानियां आ रही थीं. वो हमारी संस्कृति से जुड़ी कहानियां थीं. लेकिन कहीं ना कहीं हमारी फिल्म इंडस्ट्री जड़ों से दूर एक बबल में सीमित हो गई. आप अगर जड़ों से जुड़े नहीं होंगे तो आम आदमी का सत्य आपके काम में नहीं होगा.
प्रसून आगे बताते हैं- कई फिल्मकारों से मेरी बात हुई है, जिन्होंने कहा कि हमने जिंदगी में कभी किसान नहीं देखा. लेकिन उन्होंने फिल्म में किसान दिखाए हैं. मैं कहूंगा कि ऐसे तो वो फैन्सी ड्रेस वाला किसान हो सकता है लेकिन जमीन से निकला किसान नहीं हो सकता. आगे उन्होंने अपनी कविता की पंक्तियां सुनाते हुए कहा - जड़ों से कटे पेड़ नहीं होते वो गुब्बारे होते हैं, पेड़ होने के लिए बीज, उर्वर धरती और हवा की जरूरत है. पेड़ साधना है और गुबारे कामना. बॉलीवुड को जीवित जड़ों के साथ उगना होगा. उन्हें समझना होगा कि उनकी जड़ें कहां हैं? मैं मानता हूं कि बॉलीवुड में अच्छी सोच वाले लोग अभी भी हैं, जो साथ में बैठेंगे तो कोई ना कोई सोल्यूशन जरूर निकाल लेंगे. इस युग में आलोचना और विरोधाभास को समझना और उससे सीखकर आगे बढ़ना जरूरी है. मुझे लगता है कि वो प्रक्रिया शुरू हो चुकी है और हम आगे उज्ज्वल भविष्य देखेंगे.
बॉयकॉट बॉलीवुड ट्रेंड पर बोले प्रसून
बॉयकॉट बॉलीवुड पर प्रसून जोशी ने कहा, 'एक स्वाभिवक प्रक्रिया होती है, विचार आपस में टकराते हैं. अगर वो सहजता से हो रहा है तो विचार मंथन के लिए वो जरूरी भी है. ताकि हम समझ पाएं कि कहा हमें जाना है...'
खो चुकी है बॉलीवुड की क्रेडिबिलिटी...
आज के समय में माना जा रहा है कि बॉलीवुड अपनी क्रेडिबिलिटी खो रहा है. इस बारे में प्रसून जोशी से उनके विचार पूछे गए तो उन्होंने कहा, 'फिल्मों के रोल मे पहले बहुत फर्क था. शुक्रवार को फिल्में देखने का इंतजार लोग करते थे. लोगों के पास ऑप्शन बहुत थे. पहले मां फोन करती थी कि घर में अच्छा खाना बना है जल्दी घर आ जा. वो जल्दी आता और एन्जॉय करता था. लेकिन आज के समय में आदमी को शाम तक आते-आते बदहजमी हो चुकी होती है.
उन्होंने आगे कहा- आज के समय में उसने घर पहुंचते हुए बहुत कुछ छोटी-छोटी चीजें सोशल मीडिया पर देख ली होती है. सोशल मीडिया पर देखने के लिए बहुत कुछ है तो वो सिनेमा में फिल्म देखने के लिए तरस नहीं रहा है. पहले आपका स्टार के साथ रिश्ता अलग था. आप सोचते थे कि वो इंसान कैसा होगा? अब ऐसा नहीं है. आज आप उसे देख सकते हैं और पॉज भी कर सकते हैं. तो चीजें अब बदल चुकी हैं. बहुत जरूरी है फिल्ममेकर्स का अपनी फिल्म के विषय को दूरदर्शिता के हिसाब से चुनना.
क्यों आसान भाषा का नहीं करते इस्तेमाल?
प्रसून से पूछा गया कि वो कठिन और शुद्ध हिंदी भाषा का इस्तेमाल अपनी लेखनी में करते हैं और उसे उन्होंने अपने काम में भी रखा है. जबकि कई दूसरे लेखक हैं जो आसान भाषा का इस्तेमाल करते हैं. तो क्या आपको ऐसा करने का मन नहीं करता. इसपर उन्होंने कहा कि चाट का ठेला कितना भी अच्छा हो, लेकिन घर के खाने की बात ही कुछ और है. प्रसून मानते हैं कि कोई भी भाषा इसमें सक्षम नहीं है कि मनुष्य के दिल में जो उमड़ रहा है, उसे वो किसी के सामने रख सके. तभी बॉडी लैंग्वेज की बात होती है. उन्होंने कोरोना के दौरान मास्क लगाने और आंखों से बातें करने का उदाहरण भी दिया. उन्होंने इसके लिए 'सीखो ना नैनों की भाषा' गाना गाया.
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