लेखक-ए.अन्नामलाई
सत्य और अहिंसा के पुजारी एवं देश में आजादी की अलख जगाने वाले महात्मा गांधी ऐसे दूरदर्शी महापुरुष थे जो पहले ही यह भांप लेते थे कि कौन-कौन सी समस्याएं आगे चलकर विकराल रूप धारण करने वाली हैं। इसकी बानगी आपके सामने है.... ‘करो या मरो’ मिशन, मिशन गांधी:, सत्याग्रह, नोआखली में शांति मिशन...... महात्मा गांधी ने जिन समस्याओं का सटीक समाधान खोजने पर अपना ध्यान केंद्रित किया था वे आज के हमारे युग में भारी बोझ बन गई हैं। विश्व स्तर पर फैली गरीबी, अमीर एवं गरीब के बीच बढ़ती खाई, आतंकवाद, जातीय युद्ध, उत्पीड़न, भ्रष्टाचार, पूर्व और पश्चिम के बीच बढ़ता फासला, उत्तर और दक्षिण के बीच बढ़ती विषमता, धार्मिक असहिष्णुता तथा हिंसा जैसी समस्याओं पर अपनी नजरें दौड़ाने पर आप भी इस तथ्य से सहमत हुए बिना नहीं रहेंगे। यही नहीं, महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता एवं समानता, मित्रता एवं गरिमा, व्यक्तिगत कल्याण और सामाजिक प्रगति जैसे जिन महान आदर्शों के लिए संघर्ष किया था, उनके लिए हम आज भी लड़ रहे हैं।
महात्मा गांधी ने दुनिया के इतिहास में पहली बार जंग लड़े बिना ही एक विशाल साम्राज्य के चंगुल से छुड़ाकर एक महान देश को आजादी दिला दी। उस समय तक अमेरिका और एशिया के जितने भी उपनिवेशों ने यूरोप की औपनिवेशिक ताकतों से अपनी आजादी हासिल की थी उसके लिए उन्हें भयावह एवं विनाशकारी जंग लड़नी पड़ी थी। वहीं, दूसरी ओर महात्मा गांधी ने शांतिपूर्ण तरीके से यानी अहिंसा के मार्ग पर चलकर देश को बहुप्रतीक्षित आजादी दिला दी। यह इतिहास में ‘मील का पत्थर’ था। दूसरे शब्दों में, यह एक युगांतकारी घटना थी। यह निश्चित रूप से मानव जाति के इतिहास में महात्मा गांधी का अविस्मरणीय योगदान है - युद्ध के बिना आजादी।
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दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह
यह अहिंसा की पहली जीत थी – सविनय अवज्ञा की पहली जीत। इसने पूरी दुनिया के समक्ष पहली बार यह साबित कर दिया कि अच्छे परिणाम प्राप्त करने के लिए हिंसा का रास्ता अख्तियार करना एक अप्रचलित या पुरातन तरीका है।
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जब भी किसी बिगड़ते हालात से पूरे विश्वास के साथ, साहस के साथ, दृढ़ता के साथ एवं धीरज के साथ निपटा जाता है तो अहिंसा की तुलना में कोई भी हथियार अधिक कारगर साबित नहीं होता है। यह धरसना नमक वर्क्स और भारत की आजादी के लिए छेड़े गए आंदोलन का सबक था। यह महात्मा गांधी का महान ऐतिहासिक सबक था, लेकिन दुर्भाग्यवश दुनिया को अब भी यह सबक सीखना बाकी है।
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महात्मा गांधी वर्ष 1906 से लेकर 30 जनवरी 1948 को अपनी मृत्यु तक अपने अहिंसक आंदोलन एवं संघर्ष के साथ अत्यंत सक्रिय रहे थे। इस अवधि के दौरान उन्होंने भारतीय एम्बुलेंस कोर के एक स्वयंसेवक के रूप में दक्षिण अफ्रीका में हुए बोअर युद्ध और ज़ुलु विद्रोह में हिस्सा लिया। महात्मा गांधी दो विश्व युद्धों के साक्षी भी बने।
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उनका अहिंसक संघर्ष काफी सक्रिय रहा था और जब भी जरूरत पड़ी, तो उन्होंने अफ्रीका में युद्ध की तरह अपनी अहिंसा को कसौटी पर रखा। जब भारत में सांप्रदायिक हिंसा की आग फैल गई तो वह भारत के पूर्वी भाग चले गए, ताकि वहां आमने-सामने रहकर हिंसक हालात का जायजा लिया जा सके।
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नोआखली में शांति मिशन
‘शिकागो डेली’ के दक्षिण एशिया संवाददाता श्री फिलिप्स टैलबॉट महात्मा गांधी के ऐतिहासिक मिशन के प्रत्यक्ष साक्षी थे। वह पश्चिम बंगाल के नोआखली गए और वहां फैली सांप्रदायिक हिंसा के दौरान महात्मा गांधी के साथ समय बिताया। उन्होंने कहा, ‘छोटे कद का एक वृद्ध व्यक्ति, जिसने निजी संपत्ति त्याग दी है, एक महान मानव आदर्श की तलाश में ठंडी धरती पर नंगे पैर घूम रहा है।’
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तात्कालिक अभिप्राय
अप्रैल 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति पर ग्रेट ब्रिटेन में नए सिरे से चुनाव हुए और प्रधानमंत्री के रूप में लेबर पार्टी के क्लीमेंट एटली की अगुवाई में सरकार बनी, जिन्होंने भारत में विचार-विमर्श करने और स्वशासन का मार्ग प्रशस्त करने के लिए कैबिनेट मंत्रियों का एक प्रतिनिधिमंडल भारत भेजा। उस समय तक एक समुचित समझौता संभव नजर आ रहा था और एक अंतरिम सरकार का गठन किया जाना था जिसके लिए कांग्रेस ने अपनी सहमति व्यक्त कर दी थी। हालांकि, जिन्ना एवं मुस्लिम लीग ने अलग राष्ट्र की वकालत की और 16 अगस्त 1946 को ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ के रूप में मनाया, जिस वजह से कलकत्ता और पूर्वी बंगाल में अप्रत्याशित रूप से दंगे भड़क उठे।
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सच्चाई को परखना
प्रतिक्रियास्वरूप, इस तरह के दंगे बंगाल के नोआखली और टिपराह जिलों में भड़क उठे। तब महात्मा गांधी ने एक संवाददाता के इस सुझाव को स्मरण किया एवं उस पर गंभीरतापूर्वक मनन किया कि उन्हें खुद किसी दंगा स्थल पर जाना चाहिए और व्यक्तिगत उदाहरण के जरिए अहिंसक ढंग से दंगों को शांत करने का रास्ता दिखाना चाहिए। महात्मा गांधी के अनुसार, ‘अहिंसा की उनकी तकनीक कसौटी पर कसी जा रही है। यह देखना अभी बाकी है कि वर्तमान संकट में यह कितनी कारगर साबित होती है। यदि इसमें कोई सच्चाई नहीं है, तो बेहतर यही होगा कि मुझे खुद ही अपनी विफलता घोषित कर देनी चाहिए।’ ठीक यही विचार इस अवधि के दौरान उनके प्रार्थना भाषणों में बार-बार व्यक्त किया गया था।
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बंगाल में सांप्रदायिक अशांति के बाद महात्मा गांधी का संदेश यह था कि ‘सांत्वना नहीं, बल्कि साहस ही हमें बचाएगा।’ तदनुसार, महात्मा गांधी 7 नवंबर 1946 को नोआखली पहुंच गए और 2 मार्च 1947 को बिहार रवाना हो गए। ध्यान देने योग्य बात यह है कि 77 साल की उम्र में भी महात्मा गांधी अहिंसा और हिन्दू-मुस्लिम एकता में अपने विश्वास की सच्चाई को परखने के लिए नंगे पांव पूर्वी बंगाल के एक दूरदराज गांव जाने से पीछे नहीं हटे। महात्मा गांधी खुद दिसंबर 1946 के आखिर तक श्रीरामपुर नामक एक छोटे से गांव में डटे रहे और अपने अनुयायियों को अन्य दंगा प्रभावित गांवों में यह निर्देश देकर भेज दिया कि वे उन गांवों में रहने वाले हिंदू अल्पसंख्यक की सुरक्षा और हिफाजत के लिए कोई भी जोखिम मोल लेने से पीछे न हटें। जनवरी में उन्होंने दो चरणों में नोआखली स्थित गांवों का व्यापक दौरा शुरू कर दिया। अपने बारे में उन्होंने कहा, ‘मैं पूरे वर्ष या उससे भी अधिक समय तक यहां रह सकता हूं। यदि आवश्यक हो, तो मैं यहां मर जाऊंगा। लेकिन मैं मौन रहकर विफलता को स्वीकार नहीं करूंगा।’
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उनकी दिनचर्या
गांवों के अपने दौरे के दौरान महात्मा गांधी ने नियमित रूप से तड़के 4 बजे उठने की आदत डाल दी। सुबह की प्रार्थना पूरी करने के बाद वह एक गिलास ‘शहद युक्त पानी’ पीते थे और सुबह होने तक तकरीबन दो घंटे अपने पत्राचार में लगे रहते थे। सुबह 7.30 बजे वह एक कर्मचारी और अपनी पोती के कंधों पर अपने हाथ रखकर सैर पर निकल जाते थे। हाथ से बुनी शॉल में लिपटे यह वृद्ध व्यक्ति काफी तेज कदमों से आगे-आगे चला करते थे। वह वृद्ध भारतीय तीर्थयात्रियों की तरह नंगे पांव चला करते थे। उनके आसपास कुछ अभिन्न व्यक्ति रहते थे जैसे कि प्रोफेसर निर्मल कुमार बोस, जो उनके बंगाली दुभाषिया थे और परशुराम, जो एक प्रकार के निजी परिचारक-कम-स्टेनोग्राफर थे। इसके अलावा, उनके आसपास एक-दो युवक, कुछ समाचार संवाददाता और मुस्लिम लीग के प्रीमियर एच. एस. सुहरावर्थी द्वारा मुहैया कराई गई पुलिसकर्मियों की एक टीम (महात्मा गांधी द्वारा बार-बार विरोध जताने के बावजूद) रहती थी। कई ग्रामीण भी उनके साथ उस गांव तक जाया करते थे जहां वह एक दिन ठहरते थे। शाम में प्रार्थना सभा आयोजित की जाती थी। इसके बाद एक परिचर्चा आयोजित की जाती थी जिस दौरान वह अपने जेहन में उठने वाले हर विचार को लोगों के सामने रखते थे जैसे कि गांव में साफ-सफाई, महिलाओं में पर्दा प्रथा, हिंदू-मुस्लिम एकता, इत्यादि। रात्रि लगभग 9 बजे वह मालिश के बाद स्नान करते थे। इसके बाद वह एक गिलास गर्म दूध के साथ जमीन के नीचे उपजने वाली एवं कटी हुई सब्जियों के उबले पेस्ट के रूप में हल्का भोजन लेते थे।
उनके मिशन की कवरेज
नोआखली में अपने प्रवास के लगभग चार महीनों में महात्मा गांधी ने 116 मील की दूरी तय की और 47 गांवों का दौरा किया। नवंबर-दिसंबर के दौरान एक महीने से भी ज्यादा समय तक वह श्रीरामपुर में एक ऐसे घर में रहे जो आधा जला हुआ था। उन्होंने 4 फरवरी और 25 फरवरी, 1947 को समाप्त दो समयावधि में अन्य गांवों का दौरा किया। वह 2 मार्च 1947 को हैमचर (नोआखली जिले में) से कलकत्ता होते हुए बिहार के लिए रवाना हो गए।
एक और ‘करो या मरो’ मिशन
महात्मा गांधी ने 5 दिसंबर, 1946 को नारनदास गांधी को लिखे एक पत्र में अपने मिशन के बारे में निम्नलिखित शब्दों में अभिव्यक्त किया:-
‘वर्तमान मिशन मेरे जीवन में शुरू किए गए सभी मिशनों में सबसे जटिल है. . . मुझे याद नहीं है कि मैंने अपने जीवन में इस तरह के घनघोर अंधेरे का अनुभव इससे पहले कभी किया भी था या नहीं। रात काफी लंबी प्रतीत हो रही है। मेरे लिए एकमात्र सांत्वना की बात यह है कि मैंने हार नहीं मानी है या निराशा को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया है। यह पूरा किया जाएगा। मेरा मतलब यहां ‘करो या मरो’ से है। ‘करो’ से मतलब हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सौहार्द बहाल करने से है और ‘मरो’ से मतलब प्रयास करते-करते मिट जाने से है। इसे हासिल करना मुश्किल है। लेकिन सब कुछ ईश्वर की इच्छा के अनुरूप ही होगा।’ (सीडब्ल्यूएमजी, 86: 197-98)
वह वास्तव में एक कठिन मार्ग पर नंगे पांव चलने वाले ‘अकेले तीर्थयात्री’ थे और वह लोगों की ताकत एवं अहिंसा की ताकत का नायाब प्रदर्शन करने में काफी हद तक सफल रहे।
मिशन गांधी:
जब पूरी दुनिया ने एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में अनुबंधित श्रम को स्वीकार कर लिया था, तब महात्मा गांधी ने इसका विरोध किया। जब पूरी दुनिया ने यह स्वीकार कर लिया कि ‘ताकतवर की बात ही सही माननी पड़ती है’, तब महात्मा गांधी ने यह साबित कर दिया कि ‘जो सही बात होती है उसे ताकतवर को भी माननी पड़ती है।’ जब पूरी दुनिया ने मार-काट वाली लड़ाइयां लड़ीं, तब उन्होंने एक अहिंसक लड़ाई लड़ी। उन्होंने हिंसा के स्थान पर अहिंसा को अपना कर इतिहास की दिशा ही बदल दी। अब तक हिंसा ही राजनीतिक विवादों को सुलझाने का अंतिम हथियार थी, लेकिन अहिंसक प्रतिरोध अर्थात सत्याग्रह के जरिए उनके योगदान के बाद अहिंसा ने पूरी दुनिया में लोगों के हालिया आंदोलन में सबसे अहम स्थान हासिल कर लिया है। (साभार- PIB)
(लेखक ए.अन्नामलाई, राष्ट्रीय गांधी संग्रहालय, राजघाट, नई दिल्ली में निदेशक के पद पर कार्यरत है।)
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